नयी दिल्ली : तीन दिन पहले चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने तमिलनाडु और केरल सरकारों की राज्यपालों द्वारा बिलों को 3 साल से लटकाए जाने पर सवाल उठाते हुए पूछा है कि 3 साल से राज्यपाल क्या कर रहे थे।
सुप्रीम कोर्ट को राज्यपालों के काम पर ऊँगली उठाने से पहले अपनी तरफ भी देखना चाहिए कि वह स्वयं उन याचिकाओं पर 3 साल से क्या कर रहा है जिसमें केरल और राजस्थान सरकारों ने CAA कानून को चुनौती दी हुई है।
संसद द्वारा किसी भी कानून को लागू न करने की शक्तियां किसी राज्य सरकार के पास नहीं हैं लेकिन फिर भी 14 जनवरी, 2020 को केरल सरकार ने CAA कानून को लागू करने से मना करते हुए संसद द्वारा पास किए गए कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी और उसके बाद राजस्थान सरकार ने भी मार्च, 2020 में इस कानून को चुनौती दी थी।
दोनों राज्य सरकारों की याचिकाएं अन्य याचिकाओं के साथ साथ सुप्रीम कोर्ट में 3 साल से ज्यादा समय से लंबित हैं जिन पर 6 दिसंबर, 2020 को सुनवाई होनी थी जो शायद नहीं हुई।
केरल सरकार ने CAA कानून को चुनौती देने के लिए अनुच्छेद 25 का भी सहारा लिया था जिसके अनुसार हर किसी व्यक्ति को अंतःकरण की स्वतंत्रता की सुविधा है जबकि इस कानून में किसी के ऐसे अधिकार का हनन नहीं किया गया था। यह कानून 31 दिसंबर, 2014 से पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आये हिन्दू, सिख, बौद्ध, ईसाइयों, जैन, और पारसी लोगों को नागरिकता देने की बात करता है। इसमें कैसे किसी धर्म के लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता का हनन होता है, इतना सा मामला तय करना था सुप्रीम कोर्ट को लेकिन वह 3 साल से खामोश है।
इसलिए बेहतर होगा कि राज्यपालों की भूमिका पर सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट अपनी भूमिका का भी आत्मनिरीक्षण करे क्योंकि भारत के संघीय गणतंत्र में राज्य सरकार अपनी मनमानी नहीं कर सकती उन कानूनों के लिए जो संसद ने पास किए हैं।
राज्यपालों द्वारा बिलों को मंजूरी न देने पर लोगों के अधिकारों की अवहेलना की राज्य सरकारों की दलील स्वतः ख़ारिज हो जाती है कि उनके द्वारा CAA कानून लागू न करने से भी ऐसे ही लोगों के अधिकारों का हनन हो रहा है क्योंकि तीनों इस्लामिक देशों के प्रताड़ित अनेक लोगों को नागरिकता नहीं मिल पा रही है।
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