नयी दिल्ली : तीन राज्यों में बीजेपी की प्रचंड जीत ने इस मुद्दे पर पूरी तरह से पर्दा गिरा दिया है। वैसे तो यह मुद्दा तभी पीछे चला गया था जब इसे जोर-शोर से उठाने वाली कॉंग्रेस ने इस बार इसे ज़्यादा तूल नहीं दिया। यहाँ तक कि कर्नाटक की ही तरह तेलंगाना में इसका वादा करने के बावजूद ढोल नहीं पीटा गया। दरअसल, कॉंग्रेस को भी यह समझ में आ गया कि चाहे यह मुद्दा तात्कालिक राजनीतिक लाभ दे दे लेकिन इसके दीर्घकालिक दुष्परिणाम हैं।
इससे केंद्र सरकार को भी राहत मिलेगी जो OPS-NPS के बीच झूल रही थी। इसके लिए बनाई गई समिति अब शायद एक हाइब्रिड पेंशन व्यवस्था की सिफ़ारिश करे जिसमें कर्मचारियों के हितों का भी ध्यान रखा जा सकेगा। ऐसा करना आवश्यक भी है जिसमें कर्मचारियों को एक तय पेंशन मिलने की गारंटी दी जा सके। इसके लिए NPS में और सुधारों की आवश्यकता है।
कॉंग्रेस के कुछ नेता पोस्टल बैलेट के आँकड़े बता कर दावा कर रहे हैं कि इनमें मिली बढ़त के हिसाब से इन राज्यों में कॉंग्रेस की सरकार बननी चाहिए थी। वे भूल जाते हैं कि पोस्टल बैलेट अधिकांश ड्यूटी पर तैनात सरकारी कर्मचारी ही डालते हैं और उन पर OPS जैसे मुद्दों का व्यापक असर होता है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कॉंग्रेस सरकारों ने OPS पर जाने का ऐलान किया हुआ था और एमपी में इसका वादा था। लेकिन ईवीएम के वोटों में कॉंग्रेस का पिछड़ना यह बता रहा है कि इस मुद्दे में वैसी जान नहीं रही जैसी हिमाचल प्रदेश चुनाव में दिखी थी।